100+ Inspiring Tulsidas Ke Dohe In Hindi

Last updated on April 24th, 2023 at 08:54 am

तुलसीदास 16वीं शताब्दी के एक कवि और संत थे, जिन्हें हिंदी भाषा में उनके काम के लिए जाना जाता है, जिसमें उनकी प्रसिद्ध पुस्तक रामचरितमानस भी शामिल है। उन्होंने कई दोहे भी लिखे, जो हिंदी में छोटे दोहे हैं जो व्यावहारिक और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं। यहाँ Tulsidas Ke Dohe हैं।

Tulsidas Ke Dohe

  • दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान, तुलसी दया न छोडिये जब तक घट में प्राण।
  • अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।
    नेक जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ॥
  • तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ ओर ।
    बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर ॥
  • मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक ।
    पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ॥
  • सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
    राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥
  • आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
    तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह ॥
  • तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
    साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक ॥
  • तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग ।
    सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग ॥
  • काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।
    तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान ॥
  • सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानी।
    सो पछिताई अघाइ उर अवसि होई हित हानि ॥
  • ‘तुलसी’ जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
    तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ ॥
  • तुलसी तृण जलकूल कौ निर्बल निपट निकाज ।
    कै राखै कै संग चलै बांह गहे की लाज ॥
  • जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहि विलोकत पातक भारी ॥
    निज दुख गिरि सम रज करि जाना । मित्रक दुख रज मेरू समाना ॥
  • जिन्ह कें अति मति सहज न आई । ते सठ कत हठि करत मिताई ॥
    कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा ॥
  • देत लेत मन संक न धरई । बल अनुमान सदा हित करई ॥
    विपति काल कर सतगुन नेहा । श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ॥
  • उमा राम सम हित जग माहीं । गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥
    सुर नर मुनि सब कै यह रीती । स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
  • आगें कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई ॥
    जाकर चित अहिगत सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ॥
  • धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी।
    आपद काल परखिए चारी ॥
  • पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
    ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥
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गोस्वामी तुलसीदास के दोहे

  • बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं ॥
    जलधि अगाध मौलि बह फेन। संतत धरनि धरत सिर रेनू ॥
  • तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
    तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥
  • कोउ नृप होउ हमहिं का हानि ।
    चेरी छाडि अब होब की रानी ॥
  • काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
    निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
  • सेवक सुख चह मान भिखारी । व्यसनी धन सुभ गति विभिचारी ॥
    लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूधचहत ए प्रानी ॥
  • लखन कहेउ हॅसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल ।
    जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं विस्व प्रतिकूल ॥
  • सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपू ।
    विद्यमान रन पाई रिपु कायर कथहिं प्रतापु ॥
  • जदपि मित्र प्रभु पितु गुरू गेहा । जाइअ बिनु बोलेहुॅ न संदेहा ॥
    तदपि बिरोध मान जहं कोई। तहं गए कल्यान न होई ॥
  • बंदउ गुरू पद पदुम परागा । सुरूचि सुवास सरस अनुरागा ॥
    अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रूज परिवारू ॥
  • बिनु सतसंग विवेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥
    सत संगत मुद मंगल मूला । सोई फल सिधि सब साधन फूला॥
  • सुख हरसहिं जड़ दुख विलखाहीं, दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।
    धीरज धरहुं विवेक विचारी, छाड़ि सोच सकल हितकारी ॥
  • तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान।
    तुलसी जिअत बिडंबना, परिनामहु गत जान ॥
  • बिना तेज के परुष की अवशि अवज्ञा होय।
    आगि बुझे ज्यों राख की आप छुवै सब कोय ॥
  • सरनागत कहूँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि, ते नर पावॅर पापमय तिन्हहि बिलोकति हानि।
  • तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ और, बसीकरण इक मंत्र हैं परिहरु बचन कठोर.
  • सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास.
  • रम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार तुलसी भीतर बाहेर हूँ जौं चाहसि उजिआर।
  • मुखिया मुखु सो चाहिये खान पान कहूँ एक, पालड़ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक.
  • नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु। जो सिमरत भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदास।
  • सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानी, सो पछिताई अघाइ उर अवसि होई हित हानि।
  • बिना तेज के पुरुष की अवशि अवज्ञा होय, आगि बुझे ज्यों राख की आप छुवै सब कोय।
  • तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर, सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।
  • तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ। तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
  • तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान। तुलसी जिअत बिडंबना, परिनामहु गत जान।।
  • मार खोज लै सौंह करि, करि मत लाज न ग्रास। मुए नीच ते मीच बिनु, जे इन के बिस्वास।।
  • जिन्ह कें अति मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई। कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा।
  • देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।
    विपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एह।
  • लखन कहेउ हॅसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल। जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं विस्व प्रतिकूल।
  • रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु। अजहु देत दुख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु।
  • भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ विधाता वाम
    धूरि मेरूसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम।
  • सुख संपति सुत सेन सहाई।जय प्रताप बल बुद्धि बडाई।
    नित नूतन सब बाढत जाई।जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।
  • बिना तेज के पुरुष की,… अवशि अवज्ञा होय ।
    आगि बुझे ज्यों राख की,… आप छुवै सब कोय ।।
  • तुलसी साथी विपत्ति के,… विद्या विनय विवेक ।
    साहस सुकृति सुसत्यव्रत,… राम भरोसे एक ।।
  • काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान ।
    तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान ।।
  • आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह ।
    तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह ।।
  • मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर
    अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥
  • कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
    तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥
  • सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत ।
    श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ।।
  • मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन ।
    अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥
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तुलसीदास के दोहे

  • तुलसी किएं कुंसग थिति, होहिं दाहिने बाम ।
    कहि सुनि सुकुचिअ सूम खल, रत हरि संकंर नाम ।।
    बसि कुसंग चाह सुजनता, ताकी आस निरास ।
    तीरथहू को नाम भो, गया मगह के पास ।।
  • सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर । होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥
    काँच किरिच बदलें ते लेहीं । कर ते डारि परस मनि देहीं ॥
  • मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक ।
    पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक ।।
  • तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
    तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
  • बचन बेष क्या जानिए, मनमलीन नर नारि।
    सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।।
  • एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानन्द पर धामा ।
    ब्यापक विश्वरूप भगवाना । तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ।
  • सो केवल भगतन हित लागी । परम कृपाल प्रनत अनुरागी ।
    जेहि जन पर ममता अति छोहू । जेहि करूना करि कीन्ह न कोहू ।
  • जपहिं नामु जन आरत भारी । मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ।
    राम भगत जग चारि प्रकारा । सुकृति चारिउ अनघ उदारा ।
  • सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन
    नाम सुप्रेम पियुश हृद तिन्हहुॅ किए मन मीन।
  • भगति निरुपन बिबिध बिधाना,…क्षमा दया दम लता विताना ।
    सम जम नियम फूल फल ग्याना,… हरि पद रति रस बेद बखाना ।
  • झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने ।
    जेहि जाने जग जाई हेराई । जागें जथा सपन भ्रम जाई ।
  • जिन्ह हरि कथा सुनी नहि काना । श्रवण रंध्र अहि भवन समाना ।
  • जिन्ह हरि भगति हृदय नहि आनी । जीवत सब समान तेइ प्राणी ।
    जो नहि करई राम गुण गाना । जीह सो दादुर जीह समाना ।
  • कुलिस कठोर निठुर सोई छाती । सुनि हरि चरित न जो हरसाती
  • सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा । गाबहि मुनि पुराण बुध भेदा।
    अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बश सगुन सो होई।
  • हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहु बिधि सब संता।
    रामचंन्द्र के चरित सुहाए।कलप कोटि लगि जाहि न गाए।
  • प्रभु जानत सब बिनहि जनाएँ । कहहुॅ कवनि सिधि लोक रिझाए।
  • तपबल तें जग सुजई बिधाता। तपबल बिश्णु भए परित्राता।
    तपबल शंभु करहि संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा।
  • हरि ब्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रगट होहिं मै जाना।
    देस काल दिशि बिदि सिहु मांही। कहहुॅ सो कहाॅ जहाॅ प्रभु नाहीं।
  • तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय
    जन गुन गाहक राम दोस दलन करूनायतन।
  • जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि विलोकत पातक भारी।
    निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरू समाना।
  • तपबल तें जग सुजई बिधाता। तपबल बिश्णु भए परित्राता।
    तपबल शंभु करहि संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा।
  • हरि ब्यापक सर्वत्र समाना।प्रेम ते प्रगट होहिं मै जाना।
    देस काल दिशि बिदि सिहु मांही। कहहुॅ सो कहाॅ जहाॅ प्रभु नाहीं।
  • तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय
    जन गुन गाहक राम दोस दलन करूनायतन।
  • करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।
    व्यापकु ब्रह्मु अलखु अविनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी।
  • मन समेत जेहि जान न वानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।
    महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुॅ काल एकरस रहई।
  • जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि विलोकत पातक भारी।
    निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरू समाना।
  • जिन्ह कें अति मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।
    कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा।
  • देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।
    विपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।
  • आगें कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई।
    जाकर चित अहिगत सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।
  • सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।
  • कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के वचन बाघ हरि ब्याला।
    गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल विसाला।
  • सुभ अरू असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई।
    समरथ कहुॅ नहि दोश् गोसाईं। रवि पावक सुरसरि की नाई।
  • तुलसी देखि सुवेसु भूलहिं मूढ न चतुर नर
    सुंदर के किहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।
  • बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं।
    जलधि अगाध मौलि बह फेन। संतत धरनि धरत सिर रेनू।
  • बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चाहै नाग अरि भागू।
    जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै शिव द्रोही।
    लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई।
  • ग्रह भेसज जल पवन पट पाई कुजोग सुजोग।
    होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलक्षन लोग।
  • को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।
  • तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग
    तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।
  • सुनहु असंतन्ह केर सुभाउ। भूलेहु संगति करिअ न काउ।
    तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कपिलहि घालइ हरहाई।
  • सन इब खल पर बंधन करई । खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।
    खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूशक इब सुनु उरगारी।
  • पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।
    दुश्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।
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आत्म अनुभव पर Tulsidas के दोहे

  • जद्यपि जग दारून दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना।
  • रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु
    अजहुॅ देत दुख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु।
  • भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ विधाता वाम
    धूरि मेरूसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम।
  • सासति करि पुनि करहि पसाउ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ।
  • सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बडाई।
    नित नूतन सब बाढत जाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।
  • जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीढी। नहि पावहिं परतिय मनु डीठी।
    मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरवर थोरे जग माहीं।
  • टेढ जानि सब बंदइ काहू। वक्र्र चंद्रमहि ग्रसई न राहू।
  • सेवक सदन स्वामि आगमनु। मंगल मूल अमंगल दमनू।
  • काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि
    तिय विसेश पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसकानि।
  • कोउ नृप होउ हमहिं का हानि। चेरी छाडि अब होब की रानी।
  • महाकवि कहते हैं कि – कोई भी राजा हो जाये – हमारी क्या हानि है।
  • दासी छोड क्या मैं अब रानी हो जाउॅगा।
    तसि मति फिरी अहई जसि भावी।
  • रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते।
  • सूल कुलिस असि अंगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।
  • कवने अवसर का भयउॅ नारि विस्वास
    जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास।
  • दुइ कि होइ एक समय भुआला। हॅसब ठइाइ फुलाउब गाला।
    दानि कहाउब अरू कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रीताई।
  • सत्य कहहिं कवि नारि सुभाउ। सब बिधि अगहु अगाध दुराउ।
    निज प्रतिबिंबु बरूकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।
  • काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ
    का न करै अवला प्रवल केहि जग कालु न खाइ।
  • जहॅ लगि नाथ नेह अरू नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।
    तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति विहीन सबु सोक समाजू।
  • सुभ अरू असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ फल हृदय बिचारी।
    करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई।
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Hindi तुलसीदास के दोहे

  • जोग वियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।
    जनमु मरनु जहॅ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरू कालू।
  • बिधिहुॅ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी।
  • सुनहुॅ भरत भावी प्रवल विलखि कहेउ मुनिनाथ
    हानि लाभ जीवनु मरनु जसु अपजसु विधि हाथ।
  • रिपु रिन रंच न राखब काउ।
  • लातहुॅ मोर चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।
  • विशई साधक सिद्ध सयाने। त्रिविध जीव जग बेद बखाने।
  • सुनिअ सुधा देखिअहि गरल सब करतूति कराल
    जहॅ तहॅ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।
  • सुनि ससोच कह देवि सुमित्रा । बिधि गति बड़ि विपरीत विचित्रा।
    तो सृजि पालई हरइ बहोरी। बालकेलि सम बिधि मति भोरी।
  • कसे कनकु मनि पारिखि पायें। पुरूश परिखिअहिं समयॅ सुभाए।
  • सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
  • धीरज धर्म मित्र अरू नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।
    बृद्ध रोगबश जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अतिदीना।
  • कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
  • मैं अरू मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कहन्हें जीव निकाया।
  • रिपु रूज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
  • नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।
    भयदायक खल कै प्रिय वानी । जिमि अकाल के कुसुम भवानी।
  • कबहुॅ दिवस महॅ निविड़ तम कबहुॅक प्रगट पतंग
    बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।
  • भानु पीठि सेअइ उर आगी। स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी।
  • भानु पीठि सेअइ उर आगी। स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी।
  • उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।
  • साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी।
  • कादर मन कहुॅ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।
    ईश्वर का क्या भरोसा। देवता तो कायर मन का आधार है।
  • सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती।
  • ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन विरति बखानी।
    क्रोधिहि सभ कर मिहि हरि कथा। उसर बीज बए फल जथा।

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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

Q1 तुलसीदास कौन थे?
उत्तर: तुलसीदास 16वीं शताब्दी के एक कवि और संत थे, जिन्हें उनके काम, रामचरितमानस, रामायण के एक महाकाव्य रीटेलिंग के लिए जाना जाता है।

Q2 तुलसीदास के दोहे क्या हैं?
उत्तर: तुलसीदास के दोहे तुलसीदास द्वारा रचित दोहों (दोहों) का संग्रह है। वे प्रकृति में दार्शनिक और आध्यात्मिक हैं और उनका उद्देश्य नैतिक और नैतिक शिक्षा देना है।

Q3 तुलसीदास के दोहे कितने हैं?
उत्तर: तुलसीदास के दोहे में कुल 1,200 दोहे हैं।

Q4 तुलसीदास के दोहे की भाषा कौन सी है?
उत्तर: तुलसीदास के दोहे अवधी भाषा में लिखे गए थे, जो हिंदी की एक बोली है।

Q5 तुलसीदास के दोहे का क्या महत्व है?
उत्तर: तुलसीदास के दोहे को ज्ञान का खजाना माना जाता है और भारत में व्यापक रूप से पढ़ा और सम्मानित किया जाता है। वे मानव स्वभाव में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं और एक सदाचारी और सार्थक जीवन जीने के तरीके पर मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।

Q6 तुलसीदास के दोहे में शामिल कुछ विषय क्या हैं?
उत्तर: तुलसीदास के दोहे भक्ति, प्रेम, नैतिकता, नैतिकता, कर्म और आध्यात्मिकता सहित विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला को कवर करते हैं।

Q7 सबसे प्रसिद्ध तुलसीदास के दोहे क्या है?
उत्तर: सबसे प्रसिद्ध तुलसीदास के दोहे “कबीर से दोस्ती, कबीर की सखियाँ” हैं, जो दोस्ती के महत्व के बारे में बताते हैं और बताते हैं कि कैसे एक सच्चा दोस्त हमें धार्मिकता के मार्ग पर ले जा सकता है।

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Conclusion: तुलसीदास के दोहे आध्यात्मिक मार्गदर्शन और अंतर्दृष्टि चाहने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए एक मूल्यवान संसाधन हैं। वे एक पूर्ण और सार्थक जीवन जीने के बारे में व्यावहारिक सलाह देते हैं, और पाठकों को परमात्मा के साथ गहरा संबंध बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।

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