कबीर दास एक आध्यात्मिक कवि थे, जिन्हें हिंदू धर्म में भक्ति आंदोलन के विकास का श्रेय दिया जाता है। इस्लाम और सिख समुदाय भी उनका सम्मान करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि महान संत कबीर दास जी को धार्मिक मान्यताओं पर हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों द्वारा सराहा जाता है।
लेकिन, ऐसा कहा जाता है कि संत कबीर दास दोनों धर्मों के प्रिय थे और वे दोनों समुदायों के पवित्र धागे पहनते थे। उन्होंने दोहा और दोहावली लिखी है। उनके कुछ प्रसिद्ध लेखन बृजक, कबीर ग्रंथावली, अनुराग सागर, साक्षी ग्रंथ आदि हैं। वे गंगा नदी के तट पर अपने गुरु से मिले थे। उनके मार्गदर्शन में, उन्होंने खुद को अध्यात्म के लिए समर्पित कर दिया।

कबीर जी के अनमोल दोहे
1 चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोये | दो पाटन के बीच में, साबुत बचा ना कोए ||
2 जब तू आया जगत में, लोग हँसे तू रोय | ऐसी करनी ना करी, पाछे हँसे सब कोय ||
3 ज्यों नैनों में पुतली, त्यों मालिक घट माहिं | मूरख लोग न जानहिं, बाहिर ढूढ़न जाहिं ||
4 माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर । आसा त्रिष्णा णा मुइ, यों कही गया कबीर ॥
5 कबीर गर्व न कीजिय, ऊंचा देखि आवास काल परों भूईं लेटना, ऊपर जमसी घास || कबीर जी के दोहे

6 दुख: में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोई । जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ॥
7 चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए | वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए ||
8 बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय । जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
9 गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥
10 हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमान, आपस में दोउ लड़ी मुए, मरम न कोउ जान।
11 कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर, ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
12 माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर । कर का मन का डारि दे, मन का मनका फेर॥
13 बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर । पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥
14 निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें । बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।।
15 तिनका कबहुं ना निंदए, जो पांव तले होए। कबहुं उड़ अंखियन पड़े, पीर घनेरी होए॥

16 माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे । एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।। कबीर जी के दोहे
17 पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात ।।
18 गुरु गोविंद दोऊं खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय॥
19 कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और। हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥
20 ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग । तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ।।
21 रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय। हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदली जाय॥
22 जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप । जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।।
23 जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश । जो है जा को भावना सो ताहि के पास ।।
24 जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ।।
25 ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग । प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।।

26 तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार । सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ।।
27 माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए । हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ।।
28 तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय । सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ।।
29 जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही । ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ।।
30 पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत । अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।। कबीर जी के दोहे
31 जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही । सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
32 ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार । हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार ।।
33 नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए । मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।।
34 कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर । जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ।।
35 कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी । एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।

36 नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय । कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।।
37 साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये । मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ।।
38 पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय । ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।। राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय । जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ।।
39 धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
39 तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय, कबहुँ उड़ी आँखीन पड़े, तो पिर घनेरि होय।
40 लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । पाछे फिर पछ्ताओगे, प्राण जाही जब छूट ।।
41 अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप, अती का भला न बरसना, अती कि भलि न धूप ।
42 पतिबरता मैली भली, गले कांच की पोत । सब सखियन मे यो दीपै, ज्यो रवि शीश की जोत ।।
43 कबीर हमारा कोई नहीं, हम काहू के नाहिं । पारै पहुंचे नाव ज्यौ, मीलके बिछुरी जाह ।।
44 माटी का एक नाग बनाके, पूजे लोग लुगाया । जिन्दा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया ।।
45 मल मल धोए शरीर को, धोए न मन का मैल । नहाए गंगा गोमती, रहे बैल के बैल ।। कबीर जी के दोहे
46 कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि । दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ॥
47 एकही बार परखिये, ना वा बारम्बार । बालू तो हू किरकिरी, जो छानै सौ बार॥
48 हू तन तो सब बन भया, करम भए कुहांडि । आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि॥
49 तेरा संगी कोई नहीं, सब स्वारथ बंधी लोई । मन परतीति न उपजै, जिव बेसास न होई ॥
50 नमनहिं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होइ । पाणी मैं घीव नीकसै, तो रूखा खाई न कोइ ॥
51 माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर । आसा त्रिष्णा णा मुइ, यों कही गया कबीर ॥
52 करता था तो क्यूं रहय, जब करि क्यूं पछिताय । बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ॥
53 हिरदा भीतर आरसी, मुख देखा नहीं जाई । मुख तो तौ परि देखिए, जे मन की दुविधा जाई ॥
54 मन जाणे सब बात, जांणत ही औगुन करै । काहे की कुसलात, कर दीपक कूंवै पड़े ॥
55 मैं मैं मेरी जीनी करै, मेरी सूल बीनास । मेरी पग का पैषणा, मेरी गल कि पास ॥
56 कबीर नाव जर्जरि, कूड़े खेवनहार । हलके हलके तीरी गए, बूड़े तीनी सर भार ॥
57 उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास। तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
58 सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनाई। धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाई॥
59 जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय | मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ||
60 मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत | मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत ||
61 मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ | जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ||